अब नहीं बहेगा "प्रेम" का झरना !
प्रख्यात साहित्यकार विष्णु प्रभाकर के निधन से जगत में शोक की लहर अभी थमी नहीं थी कि हिमाचल प्रदेश ने 13 मई 2009 को एक और लेखक, ग़ज़लकार और चिंतक प्रेम भारद्वाज को खो दिया। कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से जंग जीत चुके प्रेम भारद्वाज को दिल के अचानक पड़े दौरे ने हम से छीन लिया। प्रेम भारद्वाज के रूप में विशेष कर हिमाचल प्रदेश की पहाड़ी ग़ज़ल का एक मुख्य झरना मानो सूख गया है।
प्रेम भारद्वाज ने पहाड़ी भाषा में जो ग़ज़लें लिखीं उनका मुहावरा ठीक उसी तरह का है जिस तरह का हिन्दी ग़ज़ल में दुःष्यंत कुमार का! हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली पहाड़ी बोली में जब ग़ज़ल लेखन के माध्यम से प्रेम और प्राकृतिक सौन्दर्य की अभिव्यक्ति का ही बखान किया जाता था, ऐसे समय में प्रेम भारद्वाज ने जो पहाड़ी ग़ज़लें लिखीं, वो पहाड़ी गज़ल लेखन में एक नई सोच और नई दिशा का सूत्रपात्र करती हैं। प्रेम भारद्वाज की ख़ासकर पहाड़ी ग़ज़लों में दूसरे पहाड़ी लेखकों से अलग पहचान इसलिये बन पड़ी क्योंकि प्रेम ने अपने लेखन में आम आदमी के तौर तरीके,रहन-सहन,वेश-भूषा और दुःख दर्द को शामिल किया। उनके लिए प्यार हुस्न, वादियाँ घाटियाँ ग़ज़ल लेखन का मुख़्य विषय नहीं रहा। प्रेम की ग़ज़ल पहाड़ी ,मुहावरों के साथ ग्रामीण परिवेश को साथ लेकर चलती है। तोता, भेडू,उल्लू,बिल्ली,बकरू,मछलियाँ,गाँव के तरह-तरह के पकवान आदि जिस खूबसूरती से प्रयोग हुए हैं, वह अनूठा प्रयोग है, जो न तो प्रेम के पहले किसी और ने पहाड़ी ग़ज़ल में किया है जो न प्रेम के बाद। ऐसा लगता है कि प्रेम की यह बानगी प्रेम के जीवन के साथ ही थम गई है! इसके साथ प्रेम भारद्वाज की गज़लें बहरो-वज़्न के सभी पैमानो से हो कर बखूबी गुज़रती हैं। इसी कारण उनकी ग़ज़लें और भी प्रभावशाली बन पड़ी है। हिन्दी ग़ज़ल में भी भारद्वाज का योगदान सराहनीय रहा है उसकी चर्चा अलग से की जाएगी।
हिन्दी में प्रेम के दो ग़ज़ल संग्रह "मौसम-मौसम" और दूसरा, "अपनी ज़मीन से" प्रकाशित हुए हैं और दो पहाड़ी ग़ज़ल संग्रह " मौसम ख़राब है" और "कई रूप-रंग" बाज़ार में हैं। इसके अतिरिक्त नैशनल बुक ट्रस्ट द्वारा अपनी स्वर्णजयंती के उपलक्ष्य पर प्रकाशित पहाड़ी काव्य संग्रह "सीरां" का संपादन भी प्रेम भारद्वाज ने ही किया है। कई स्वयंसेवी संस्थानों में भी प्रेम भारद्वाज ने अपना सक्रिय योगदान दिया है। प्रेम हिमाचल प्रदेश प्रशासनिक सेवा में एक कुशल प्रशासनिक अधिकारी भी रहें हैं। उनके इस कौशल का कारण भी उनका एक सहज, संवेदनशील और आम आदमी से सीधे संवाद रखने की आदत थी, जो आज के प्रशासनिक अधिकारियों में संभवतयः मिलती ही नहीं हैं, इसी कारण आज के परिदृष्य में प्रशासन की कार्यप्रणाली प्रश्न चिन्हों के घेरे में ही रहती है। प्रेम बहुत ही भावुक चुस्त और चिंतनशील साहित्यकार होने के साथ एक अच्छे इंसान भी थे। प्रेम जिस भी क्षेत्र में रहे या फिर उन्होंने किसी क्षेत्र में काम किया, उसे प्रेममय कर दिया, यही प्रेम की पहचान है। जहाँ-जहाँ पर भी प्रेम ने काम किया ,वे हर उस जगह अपनी छाप छोड़ गये हैं। प्रेम भारद्वाज ने अपने व्यक्तिगत जीवन में एम एस सी के बाद हिन्दी लेखन में रुचि के चलते हिन्दी में एम ए किया। बाद में उन्होंने हिन्दी लेखन में ही पी एच डी की उपाधि भी हासिल की। एक क्लर्क से अपनी नौकरी शुरू करके अध्यापक और फिर कई महत्वपूर्ण पदों पर एक
अहम अधिकारी की भूमिका उन्होंने बखूबी निभाई है। प्रेम में एक खूबी यह भी रही की वे अपनी मिलनसारी और आत्मीय स्वभाव के चलते अपने साथ लोगों को जोड़ते रहे और एक बड़ा काफिला प्रेम के साथ जुड़्ता चला गया। प्रेम जिस भी स्थान पर रहे अपनी उपस्थिति का अहसास दर्ज़ कराते रहे।
शिमला में प्रेम एस डी एम के तौर पर रहे तो बचत भवन का विश्राम ग़्रह और प्रेम का कार्यालय छुट्टी के बाद साहित्यिक गोष्ठियों का अड्डा बनता चला गया। सुपरिचित कवि लेखक, संपादक तुलसी रमण कहते हैं कि प्रेम के साथ शिमला में देर रात तक की गई गोष्टियाँ आज भी अविस्मरणीय हैं और वे गोष्ठियाँ शिमला में साहित्यिक माहौल बनाने में काफी मददगार रहीं हैं । भरमौर हिमाचल प्रदेश के चंबा जिला का एक दूर-दराज़ का क्षेत्र है, वहाँ पर जब प्रेम भारद्वाज को एस डी एम लगाया गया तो प्रेम भारद्वाज की खनक पूरे चंबा में गूँजी और उनका व्यक्तित्व हर जगह छा गया। अपनी साहित्यिक रुचि के चलते प्रेम ने भरमौर में एक साहित्यिक संस्था की स्थापना की जो आज भी भरमौर में साहित्यिक माहौल बनाए हुए है। प्रेम से मेरा जो लगाव है वो किसी घनिष्ठ परिजन, परम मित्र और एक प्रतिभा सम्पन्न मार्गदर्शक और के रूप में रहा है। भरमौर में उनके पास जाना हुआ तो उनकी बहुत सी गज़लों, कविताओं ने तो मुझे प्रभावित किया ही, साथ ही साथ उनके स्नेहिल अनुरोध ने हमें मणिमहेश यात्रा भी करवाई। इस यात्रा में मेरे साथ वरिष्ठ साहित्यकार पीयूष गुलेरी,प्रत्यूष गुलेरी और उनका परिवार भी साथ था। प्रेम के निधन से मणिमहेश का वो हसीन मंज़र याद आया ,प्रेम से विदा होने की यादें ताज़ा हुई और आँखें नम हो गईं। प्रेम के खोने का ग़म तो उम्र भर रहेगा ही बल्कि यह क्षति मेरे लिये और शायद हिमाचल में लिखे जा रहे साहित्य के लिए भी संभवतयः पूर्ण होने वाली क्षति नहीं है। पहाड़ी ग़ज़लों में प्रेम की ग़ज़ल "भेडू" अचानक याद आ गईं, जिसकी कुछ लाईनें यहाँ प्रस्तुत करता हूँ:
"लगेया लेरा पाणा भेडू,
कुनकी खाई जाणा भेडू,
सुखणा लिया चढ़ाणा भेडू,
है मुस्कल बड़ा समझाणा भेडू,
पहलैं खूब चराणा भेडू,
फी मस्ती नैं खाणा भेडू,
बणया कोट, जराबाँ,पट्टू,
अप्पू था पतराणा भेडू,
उच्ची नजर कदी न करदा,
कया मोआ जरकाणा भेडू।"
इन पंक्तियों में भेडू को पात्र बनाकर किस प्रकार प्रेम ने व्यंग्य किया है वो उत्सुकता और आश्चर्य पैदा करने वाली है मैं उन लोगों के लिए इस ग़ज़ल को हिन्दी में अनुवाद करने की कोशिश करूँगा जो पहाड़ी समझने में असुविधा महसूस करते हैं लेकिन यह भी कहना चाहता हूँ कि जो संप्रेषण किसी भाषा में खुद का होता है वह अनुवाद में कदापि नहीं हो सकता यद्यपि ये गज़ल प्रेम ने तो पूरे बहरो-वज़्न में लिखी है लेकिन मेरे अनुवाद में हो सकता है ये गज़ल बहरो-वज़्न से खारिज हो परंतु इसके कथन को समझाने का पूरा प्रयास किया गया है। बहर वाले तो मुझे माफ करें ही और अगर अनुवाद भी ठीक से न हो पाया हो तो भी मुझे माफी मिलनी चाहिए क्योंकि यह मेरा एक प्रयास मात्र ही हैः
देखो अब मिमियाए भेडू,
कोई खा न जाए भेडू,
सुखना को चढ़ाया जाएगा,
है मुश्किल कौन समझाए भेडू
पहले खूब चराए भेडू
फिर मस्ती से खाए भेडू
बनेगा कोट,जुराबें पट्टू,
खुद नंगे पाँव जाए भेडू,
गर्दन ऊँची नहीं है करता,
फिर क्या कोई जरकाए भेडू।
आप देख सकते है कि प्रेम अपने परिवेश से छोटी-छोटी चीज़ों को कितनी खूबसूरती से समेटते थे। प्रेम भारद्वाज के दो हिन्दी ग़ज़ल संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं उनके निधन पर उसमें से कई पंक्तियाँ मेरे जहन में ताज़ा होगई आपके साथ साझा करना चाहूँगा:
"नाम लेकर धर्म का कुछ सिर फिरे,
अग्निकाँडों को हवन कहते हैं।"
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दिल की बात समझने का भी मौसम होता है,
कच्ची इमली चखने का भी मौसम होता है।
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अब भुलावा नींद को देते हैं टीवी सीरियल,
और दादी की कथा तो बेतुकी टरटर लगे।
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आम आदमी के दुख को बयान करती उनकी ये पंक्तियाँ देखिये:
करने लगेगा बात वह भी सोचकर,
रोटियाँ उसको मिली जो पेट भर
नाम पर पीपल के बच्चों को यहाँ,
रह गये दिखाते पापलर।
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उनकी एक ग़ज़ल जो मुझे बेहद पसंद है, उसमें से कुछ पंक्तियाँ देखिए:
आजमाईश की घड़ी आई तो है,
ले अगर मौसम अंगड़ाई तो है,
दम घुटे ऐसी नौबत है नहीं,
साँस लेने में ही कठिनाई तो है।
उनका एक शेर बहुत ही सराहा गया लेकिन बाद में बहर के चक्कर में जो प्रेम ने इसमें बदलाव किये, तो ये शेर कुछ फीका पड़ गया आपको शेर के दोनो रूप प्रस्तुत करता हूँ।
बहर से खारिज:
सच कहने की जो अपनी आदत है,
उनके शब्दकोश में बग़ावत है।
बहर में आने के बाद:
साफगोई की जो अपनी आदत है,
उनके आईन में बग़ावत है।
आम जन हैं अगर हताश यहाँ,
ये किसी खास की शरारत है।
प्रेम के चले जाने पर ये उनकी ही पंक्तियाँ कितनी प्रसाँगिक लगती हैं,
ऊपर समदल,
नीचे दलदल,
मौत ठिकाना,
जीवन चलचल।
प्रेम का ये शेर उनके अलग ही तेवर बयान करता है:
इतनी जिल्लतों के बाद भी वह मौन है अगर
यह उसके संस्कार नहीं रोटियाँ भी है।
कैंसर जैसे घातक रोग से लड़ते-लड़ते प्रेम बेशक खोखले भी हो गये हों, लेकिन अपना दर्द उन्होंने ज़ाहिर नहीं होने दिया और आखिरी साँस तक हँसते मुस्कुराते रहे और मुस्कुराते हुए ही चल दिये। उनकी ये पंक्तियाँ उनके इसी रूप को उदघाटित करती है:
क्या अंगारे का शबनम,
ठीक नहीं मन का मौसम
मन को बेशक ग्रहण लग गया,
बाहर से तो रखा चमचम।
सचमुच अपने मन पर लगे बीमारी के ग्रहण के होने के बाद भी प्रेम अपने को खुश और चुस्त रखे रहे और चुपचाप चले गये। ये जीवन एक शंतरंज की बिसात की तरह ही तो है जहाँ आदमी खुद को लाख बचाने की कोशिश करता है, लेकिन बचा नहीं पाता, प्रेम ने भी जिजीविषा नहीं छोड़ी, भले ही वो जीवन से आखिर में जंग हार गये:
रोज़ शह के लिए उलझते है,
रोज़ खुद को ही मात आती है।
प्रेम के न रहने पर उनकी ग़ज़लों का सैलाब मन में उमड़-घुमड़् रहा है, मन करता है सब आपके सामने रख दूँ, उनकी ये ग़ज़ल देखिए:
आहों का है प्रासन यारो,
चाहों को निर्वासन यारो,
ठोकर खाकर भी मुस्काना,
कितना है अनुशासन यारो,
एक कन्हैया कितना दौड़े,
गली-गली दुःशासन यारो।
चौराहे पर अपने ग्रहों को दूर करने के लिए "सतनाज़ा" अर्थात सात प्रकार के अन्न की गठरी काले कपड़े में बाँधकर रखी जाती है और यह मान्यता है कि जो भी व्यक्ति इस गठरी को पहली बार अपने पाँव से दबा दे या गठरी के स्थान से पहली बार गुज़रे, सारे ग्रह उस पर आ जाते हैं। इस प्रकार के अंधविश्वासों पर तीखी टिप्पणी करते हुए प्रेम भारद्वाज ने अपनी ये पंक्तियाँ लिखी हैं:
पाँव बचाकर चलना भाई,
रास्ते में है सतनाजा।
प्रेम की गज़ल के ये तेवर भी देखिए।
गलकटों, चोरों,लुटेरों जाबिरों के कारनामों,
का बदलकर नाम हाथों की सफाई हो गया।
हिन्दी और पहाड़ी ग़ज़ल के इस झरने के सूखने से हिन्दी साहित्य विशेषकर हिमाचल के साहित्यकार गहरे सदमें में है, मैं भी!
प्रेम भारद्वाज के सहपाठी और घनिष्ठ मित्र सुपरिचित ग़ज़लकार पवनेंद्र "पवन"का कहना है किः "प्रेम ने अपने लेखन पर ही ध्यान नहीं दिया, बल्कि दूसरों को भी लिखने के लिए प्रोत्साहित किया।प्रेम ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में छात्र राजनीति में भी अपना नाम चमकाया। सशक्त स्टूडैंट यूनियन की स्थापना की। हम में इतनी दोस्ती थी कि मुझे प्रेम कहते थे और प्रेम को पवनेंद्र।"प्रेम के जाने का दुःख मेरे लिए किसी गहरे सदमे से कम नहीं!
वरिष्ठ साहित्यकार सुन्दर लोहिया ने प्रेम के निधन पर भारी मन से कहा कि प्रेम भारद्वाज अपने लेखन में जनता के सुख-दुःख.तौर-तरीके, लोकभाषा, का प्रयोग करते थे इसलिए वे पहाड़ी लेखन में सिद्धहस्त कवि कहे जा सकते है पहाड़ी सरोकारों की समझ जिस प्रकार प्रेम भारद्वाज को थी वो किसी दूसरे के लेखन में नहीं झलकती। प्रेम लोक जीवन से जुड़ा कवि और एक सीधा और स्नेहिल व्यकित था। मुझे उसके जाने का दुःख है।"
वरिष्ठ साहित्यकार शमी शर्मा का प्रेम भारद्वाज के निधन पर ये बयान थाः "प्रेम भारद्वाज पहाड़ी ग़ज़ल के पुरोधा और निर्माता कहे जा सकते हैं। उनके निधन से पहाड़ी ग़ज़ल को भारी क्षति हुई है। उनके पहले सुदर्शन कौशल 'नूरपुरी' ने पहाड़ी ग़ज़ल लेखन को आरंभ किया था लेकिन जिन ऊँचाईयों को प्रेम ने छूआ वहाँ तक कोई नहीं पहुँच सका। प्रेम ने हिन्दी ग़ज़लों में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसके अतिरिक्त प्रेम एक मिलनसार,आत्मीय और संवेदनशील व्यक्ति थे। इस क्षति की पूर्ति संभव नहीं है।
वरिष्ठ शायर शबाब ललित ने अपने विचार कुछ ऐसे व्यक्त किये: "प्रेम मेरा प्रिय छात्र था। नगरोटा में मैने उसे पढ़ाया था। पहाड़ी गज़लों में जो शिल्प प्रेम के लेखन में मिलता है किसी के लेखन में नहीं है प्रेम के जाने का मुझे दुःख है। य बहुत बड़ा नुकसान है।"
वरिष्ठ साहित्यकार गौतम शर्मा 'व्यथित' भी प्रेम के अचानक चले जाने से बहुत ही आहत दिखे, उन्होंने कहा किः "बहुत बड़ी कमी आ गई प्रेम के जाने से! पूर्ति नहीं हो सकती! प्रेम ने अपने लेखन में आम मुहावरों को निराले अंदाज़ में प्रस्तुत किया। उन्होंने व्यंग्य और हास्य की शैली में युग के सत्य को प्रस्तुत किया। प्रेम पहाड़ी साहित्य रथ के चार पहियों का आखिरी पहिया थे। पहले तीन पहिए हम ओम प्रकाश प्रेमी, सागर पालमपुरी और शेष अवस्थी के रूप में खो चुके थे। और चौथा प्रेम के रूप में हमने खो दिया है और पहाड़ी लेखन को बहुत बड़ी क्षति है ये!"
वरिष्ठ पहाड़ी और हिन्दी के लेखक पीयूष गुलेरी भी प्रेम के जाने से काफी दुःखी नज़र आए, उन्होंने बताया कि "प्रेम के जाने से मानो मेरे शरीर का महत्वपूर्ण अंग छिन गया है। प्रेम मेरे विद्यार्थी भी रहे हैं और वो एक विद्यार्थी के रूप में भी बहुत प्रतिभाशील थे। हिमाचली संस्कृति और लोक परंपरा को लेकर प्रेम ने बहुत ही सराहनीय योगदान दिया है। इसे किसी दैवी शक्ति से कम नहीं माना जा सकता कि प्रेम प्रथम कोटि की प्रतिभा के धनी थे। प्रेम ने शायरी और ग़ज़ल के नुस्खे सीखे और साग़र मनोहर "पालमपुरी" तथा सुदर्शन कौशल "नूरपुरी" के बाद पहाड़ी ग़ज़ल की भूमि को उर्वरा बनाया। प्रेम एक संगठक भी थे लोगों को अपने साथ जोड़ते थे।"
वरिष्ठ हिन्दी और पहाड़ी साहित्यकार प्रत्यूष गुलेरी इसे गहरा सदमा कहते हुए बताते हैं किः "प्रेम एक अच्छे मित्र, दबंग और निडर व्यक्ति थे। हिमाचली भाषा के लिए उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता।"
वरिष्ठ साहित्यकार सुदर्शन वशिष्ठ ने भी प्रेम के निधन पर शोक व्यक्त किया और कहा किः "प्रेम को खोकर हमने हिन्दी और पहाड़ी का एक महत्वपूर्ण कवि खो दिया है। जो मुहावरा पहाड़ी लेखन में प्रेम के पास था किसी के पास नहीं है। प्रेम मेरे सहपाठी भी थे। इसके साथ वो एक अच्छे इंसान और कुशल प्रशासक भी रहे हैं ।"
सुपरिचित लेखक और 'विपाशा' के संपादक तुलसी रमण ने प्रेम भारद्वाज को खोने का दुःख व्यक्त करते हुए बताया किः"प्रेम मुख्य रूप से ग़ज़लगो ही कहे जा सकते हैं। उनके पहाड़ी और हिन्दी के दो-दो संग्रह आए हैं। प्रेम ने काँगड़ी और मंडयाली बोली के बीच मेल-जोल बढ़ाने का काम किया। प्रेम ने गोष्ठियों में बहस के लिए तर्कसंगत वक्त्रता में भी महारत हासिल कर ली थी। हिमाचल में पहाड़ी लेखन में सागर पालमपुरी, शेष अवस्थी, प्रफुल्ल कुमार परवेज़ के साथ प्रेम भी उसी पीढ़ी के लेखक थे। उनके निधन से पहाड़ी लेखकों की ये चोकड़ी समाप्त हो गई है। चाहे धर्मशाला हो या पालमपुर! दोनो की सांस्कृतिक हवा से प्रेम भारद्वाज अलग ही दिखाई देते थे। कहा जा सकता है कि प्रेम खुले में निकल आए थे, वैचारिक तौर पर वे प्रगतिशील रुझान के शख़्स थे। प्रेम मेरे मित्र भी थे और शिमला में उनके कार्यकाल में जो साहित्यिक गतिविधियाँ बढी उससे उनके साथ मित्रता अंतरंगता तक जा पहुँची।"
सुपरिचित साहित्यकार और 'हिमाचल मित्र' पत्रिका के संपादक अनूप सेठी ने प्रेम भारद्वाज के निधन पर गहरी संवेदना व्यक्त करते हुए कहा किः
"उनके निधन से बहुत दुःख हुआ। प्रेम से अधिक नहीं मिला हूँ लेकिन हिमाचल मित्र के लिए उन्होंने बहुत सहयोग दिया था।"
वरिष्ठ साहित्यकार दीनू कश्यप कहते हैं किः"प्रेम से 1988 में मिला था, जब मण्डी में त्रिलोचन जी आए थे। प्रेम को मण्डी से बहुत लगाव था। प्रेम ने मण्डी में रह कर बहुत सी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ीं और लोक संस्कृति से उनके लगाव और पहाड़ी भाषा में पकड़ होने के कारण उनके लेखन में आधुनिकता आई और वे पहाड़ी के अग्रिम पंक्ति के कवियों में आ खड़े हो गये। पहाड़ी मुहावरों और आधुनिक बोध में जो तारतम्य प्रेम ने अपने लेखन में स्थापित किया वो अनूठा है। पहाड़ी गज़लों की प्रखर चेतना और स्थानीय शब्दो का अपनी रचनाओं में इस्तेमाल करना प्रेम को जनकवि बनाता है प्रेम मेरे बहुत प्रिय दोस्त थे, मुझे प्रेम के अचानक जाने का दुःख है।"
सुपरिचित कवयित्रि और कहानीकार रेखा ने भी प्रेम के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए बताया है कि : "मुझे प्रेम के जाने का बहुत दुख हुआ है। प्रेम ने पहाड़ी गज़लों के साथ बहुत सी हिन्दी गज़लें लिखी हैं, जो बहुत प्रभावित करती हैं।"
सर्जक के संपादक मधुकर भारती का कहना है किः"प्रेम भारद्वाज शायर के साथ एक साहित्यिक चिंतक भी थे। साहित्य के मूलभूत प्रश्न पर उनके विचार सुलझे हुए थे। प्रेम ने पहाड़ी गज़लों को स्तुतिगान की जगह समाज के कठोर यथार्थ से जोड़ा। शिमला में जब प्रेम रहे तो शाम पाँच बजे के बाद उनका कार्यालय साहित्यिक गोष्ठियों का अड्डा बन जाता था और इसी के चलते प्रेम ने अपने कार्यकाल में शिमला में साहित्यिक माहौल भी बनाया। प्रेम मे न केवल अपने लेखन में पहाड़ी मुहावरों का प्रयोग किया, बल्कि पहाड़ी मुहावरों को बनाया भी।"
सुपरिचित कवयित्रि सरोज परमार ने प्रेम भारद्वाज के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए बताया कि:"मैं और प्रेम यूनिवर्सिटी में इकट्ठे पढ़े। 1972 से मेरा उनसे गहरा परिचय है। जिस समय श्रंगार और प्राकृतिक सौन्दर्य पर ही लिखा जा रहा था उस समय प्रेम ने प्रगतिवादी सोच से लिखा और हमेशा ग्रामीण अचल को साथ लेकर चले। प्रेम बड़ी-बड़ी बातों की परवाह न करके छोटी-छोटी चीज़ों की फिक्र रखते थे, इसलिए उनकी गज़लें घर-घर तक जा पहुँची प्रेम की पहाड़ी गज़ल में जो तेवर दिखते हैं, वो किसी और पहाडी गज़लकार नें नज़र नहीं आते, इसका एक कारण प्रेम की पहाड़ी भाषा में ज़बरदस्त पकड़ होना भी है।"
सुपरिचित गज़लकार द्विजेंद्र 'द्विज' प्रेम के निधन पर बताते हैं कि: "बहुत बड़ी क्षति है प्रेम का जाना। प्रेम के रूप में मैंने बहुत ही आत्मीय साथी खो दिया! प्रेम ने लेखन में सिर्फ ग़ज़ल विधा को ही चुना और सीखने सिखाने की परंपरा में प्रेम गहन रुचि रखते थे। प्रेम, इसलाह परम्परा के पक्षधर भी थे इसके साथ प्रेम भारद्वाज एक सीधे इंसान और एक सच्चे मित्र भी थे। काँगडा में प्रेम भारद्वाज, पवनेंद्र 'पवन' और द्विजेंद्र 'द्विज' को गज़ल की त्रैयी के रूप में भी जाना जाता था। इस त्रैयी के टूटने से मुझे दुःख हुआ है।"
युवा साहित्यकार मोहन साहिल ने भी प्रेम के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए बताया कि हमने पहाड़ी का एक सशक्त ग़ज़लकार खो दिया और एक अच्छा मित्र भी।
युवा लेखक, कवि, और पत्रकार नवनीत शर्मा ने भी प्रेम के निधन पर श्रद्धाँजलि व्यक्त करते हुए कहा किः"प्रेम एक ग़ज़लकार ही नहीं थे, बल्कि उनमें कई गुणों का समावेश था। वो एक सहज और बहुआयामी व्यक्तित्व थे। हर आदमी को बराबरी की नज़र से देखते थे और उनमें हर विचारधारा का समावेश था। मेरे पिता जी स्वर्गीय सागर 'पालमपुरी' के मित्र तो थे ही, उन्होंने मेरे साथ भी मित्र जैसा रिश्ता कायम कर लिया था। रोज़ प्रेम जी से आधा घण्टा फोन पर बात होती थी। मुझे दुख है कि सागर पालमपुरी,शेष अवस्थी,और अब प्रेम भारद्वाज जैसे पहाड़ी के चिंतक लेखक नहीं रहे।
युवा लेखक,कवि कहानीकार और पत्रकार मुरारी शर्मा ने भी अपने दुःख का वर्णन कुछ इस प्रकार कियाः"पहाड़ी गज़लों के दुःष्यंत कुमार को हमने खो दिया, इससे बड़ा सदमा और भला क्या हो सकता है। प्रेम ने पहाड़ी मुहावरे और जनवादी सोच को लेकर ग़ज़लें लिखीं जो आम आदमी की चिंताओं से रूबरू थीं, इसीलिए प्रेम को जनकवि कहा जा सकता है। वे एक अच्छे मित्र और एक सुलझे हुए प्रशासनिक अधिकारी भी थे।"
प्रेम भारद्वाज के मित्र कमल "हमीरपुरी" कहते हैं किः "प्रेम के जाने का बहुत दुःख है के अग्रिम पंक्ति के साहित्यकार प्रेम के रूप में खो दिया है। इस क्षति की भरपाई नहीं की जा सकती।"
प्रेम जी के रूप मे, हिन्दी जगत ने एक अमूल्य निधि खोयी है । जिसकी क्षतिपूर्त्ति होना असम्भव है । प्रभु उनकी आत्मा को शांति दे ।
ReplyDeleteप्रकाश भाई इस बिद्वान साहित्यकार के चले जाने से मन ब्यथित और आहत है ,ये ना कहे की वो सिर्फ पहाडी के कवी थे ... उन्होंने साहित्य के लिए जो आपना योगदान दिया है वो हमेशा से ही याद रखने वाली बात है... साहित्य के उनके अपुरानिया kshati को पूरा करना नामुमकिन है ... इस महान साहित्यकार को मेरा नमन और बिनम्र श्रधांजलि.. ऊपर waala उन्हें शांति और स्वर्ग बक्शे ... यही दुआ है....
ReplyDeleteअर्श
"एक कन्हैया कितना दौड़े,
ReplyDeleteगली-गली दुःशासन यारो।
ऐसे नायाब शेर कहने वाले प्रेम भारद्वाज साहेब को अश्रु पूरित श्रधांजलि....आपने उनके बारे में बहुत अच्छी जानकारी दी है और उनकी रचनाओं की बानगी से ही लग रहा है की हमने कितना शशक्त रचनाकार खो दिया है...वहां की आम जबान में कहे गए उनके शेर उन्हें चाहने वालों के दिलों में बरसों बरस जिंदा रखेंगे...इश्वर उनकी आत्मा को शांति दे...
नीरज "
dukh hua, ishwar unhen shanti pradaan karen.
ReplyDeleteखबर पढ़ कर बहुत दुक्ख हुआ,,,, फिर जब उनकी कलम का जादू जाना तो वाकई में हक्का बक्का सा रह गया,,,,,कमाल कहा है,,,
ReplyDeleteएक कन्हिया कितना दौडे...
गली गली दुशासन यारो,,,
क्या मंजर पेश कर दिया आँखों के आगे,,,,,
और निरीह भेडू का अनकहा दर्द,,,,,
जिसे सही से जानने में परेशानी हुई मगर बादल भाई ने बखूबी उस का अनुवाद कर के हम तक पहुंचाया,,,,,,,उसके लिए उनका शुक्रिया,,,,,,
बनेगा कोट, जुराबें ,पट्टू
खुद गंजा रह जाये भेडू,,,,,
हर किसी के दर्द में साथ साथ जीने वाले इस महान शायर को नमन,,,,,,
सच में द्विज भाई की त्रैयी टूट गयी,,,,,,
इश्वेर उनकी आत्मा को शान्ति दे,,,,
सुखना को चढ़ाया जाएगा,
ReplyDeleteहै मुश्किल कौन समझाए भेडू
पहले खूब लोग चराए भेडू
फिर मस्ती से खाए भेडू
बनेगा कोट,जुराबें पट्टू,
खुद गंजा रह जाए भेडू,
गर्दन ऊँची नहीं है करता,
फिर क्या कोई जरकाए भेडू।
यह तो एक व्यथा है .शब्दों में .
भगवान उनकी आत्मा को शंति प्रदान करे.
ReplyDeleteबणया कोट जराबां पट्टू,
ReplyDeleteअप्पू था पत्तराणा भेडू...
प्रेम जी का ये शेर ही उनकी शख्शियत की असली पह्चान है। डा0 प्रेम भारद्वाज जी का यूं चुप-चाप महा-प्रयाण कर जाना हम सब के लिये अत्यंत दुखदायी है जिसकी क्षतिपूर्ती असम्भव है।श्रद्धा-सुमन दो पंक्तियों के साथ...
प्यार बंडदा रहंदा हंडदा,
याद बडा मिंजो आणा भेडू...
शुक्रिया प्रकाश भाई
ReplyDeleteप्रिय भाई प्रकाश्ा बादल जी ने जो श्रद्धांजलि भाई प्रेम भारद्वाज को दी है, वह जैसे उस सब कुछ को बयान कर देती है जो उनसे जुड़ा कोई व्यक्ति कहना चाहता हो। प्रकाश भाई की संवेदनाएं मुखर होकर बोली हैं। अक्सर ऐसे लोगों के बिछड़ने पर लिखना कठिन होता है जो बहुत करीबी होते हैं या जिनसे अंदर तक रूहदारी होती है। होता यह है कि लेखक या भटक जाते हैं या फिर बेहद जज़्बाती हो जाते हैं। लेकिन प्रकाश भाई ने पूरी परिपक्वता के साथ बात रखी है। वह भी ऐसे में जब वह स्लिप डिस्क के कारण ट्रेक्शन पर हैं। ऐसा जुनून कहां देखने को मिलता है। ऐसे लोग बुहत कम रह गए हैं जो अदब अदीबों के लिए बीमारी तक की परवाह न करें। मुझे लगता है कि प्रेम भाई साहित्य का और मूल्यांकन होना अभी बाकी है। मुझे अहमद फराज का एक शे'र बुरी तरह याद आ रहा है
हुई है शाम तो आंखों में बस गया फिर तू
कहां गया है मेरे शहर के मुसाफिर तू
हंसी खुशी से बिछड़ जा अगर बिछ़ड़ना है
ये हर मकाम पे क्या सोचता है आखिर तू
प्रेम भाई की रूह को सलाम।
धन्यवाद प्रकाश भाई, यह वाकई सच्ची आदराजंलि है।
बणया कोट जराबां पट्टू,
ReplyDeleteअप्पू था पत्तराणा भेडू...
प्रेम जी का ये शेर ही उनकी शख्शियत की असली पह्चान है। डा0 प्रेम भारद्वाज जी का यूं चुप-चाप महा-प्रयाण कर जाना हम सब के लिये अत्यंत दुखदायी है जिसकी क्षतिपूर्ती असम्भव है।श्रद्धा-सुमन दो पंक्तियों के साथ...
प्यार बंडदा, रहंदा हंडदा,
याद बड़ा हुण् आणा भेडू...
दुखद खबर से तो पहले मिल चुकी थी
ReplyDeleteइस विस्तृत जानकारी के लिये आभारी हूँ प्रकाश भाई...
Aapka itna vistrut lekh padh kar
ReplyDeletePrem ji ke bare mein bahut sari jaakari mili
unki gazal ke kuch sher bhi bahut prbhavit kar gaye
Bhgwaan unki aatma ko shanti prdaan kare
... ऎसी हस्तियाँ सदियों तक अमर रहती हैं ... इतनी खामोशी और बेतरतीब फैले सन्नाटे के बीच अब क्या कहें ... हम भी आप लोगों के साथ ..।
ReplyDeleteभगवान उनकी आत्मा को शंति प्रदान करे.इस महान साहित्यकार को मेरा नमन और बिनम्र श्रधांजलि
ReplyDeleteप्रकाश्ा बादल जी,
ReplyDeleteप्रेम जी को सच्ची श्रधांजलि तो आपने दी है जो उनकी कृति को हम सब तक पहुँचाया और उनसे हमें परिचित करवाया .....इस महान साहित्यकार को मेरा नमन .....!!
पहले तो मैं आपका तहे दिल से शुक्रियादा करना चाहती हूँ की आपको मेरी शायरी पसंद आई!
ReplyDeleteमहान साहित्यकार की आत्मा को शान्ति मिले! आपने जानकारी दी उसके लिए धन्यवाद!
इन महँ साहित्यकार को मेरा नमन.... और आपका शुक्रिया की आपने इनको याद किया, हम इन महान साहित्यकार को नहीं भूल सकते
ReplyDeleteaapke agle post ka intzaar hai....
ReplyDeleteप्रेम भारद्वाज जी से शायद ही कोई अपरिचित हो। उनका यह असामयिक निधन साहित्य जगत की अपूर्णीय क्षति है।
ReplyDeleteab aap jaldi hi kuchh naya pesh karo bhaiya
ReplyDelete:( dukhad samachar hai... unki kami sahitya jagat mein avashya khalegi...
ReplyDeleteApni rachnaon ke madhyam se we hamesha hamare bich rahenge.Naman.
ReplyDeletePoora nahee padh payee hun abhee tak aapka aalekh...
ReplyDeletePrem ji bare me ye behtareen jaankaaree abhee aur padhnee hai..
मैं बच्चा था तो पापा ने एसडीएम साहब की पंक्तियां सुनाई थीं...
ReplyDeleteथुक्का च बबरु नी पकदे....
याद हैं आज भी... आज पता चला कि वो प्रेम भारद्वाज जी ही हमारे जोगिन्दर नगर के एसडीएम थे...