जब से तेरे प्यार में पागल रहा हूं मैं।
शहर भर की तबसे हलचल रहा हूं मैं।
मेरी भाषा अब ये समंदर क्या जाने,
कि नदी में बहती हुई कल-कल रहा हूं मैं,
बर्फ हूं मेरे नाम से ठिठुरते हैं सभी,
पहाडों पर लेकिन बिछा कंबल रहा हूं मैं।
आग आरियां,तूफान, बारिश, साजिशें बौनी हुई,
लहलहाता हुआ मगर जंगल रहा हूं मैं।
होकर माला-माल शून्य कई लौट गए,
भूल गये कि उनका एक हासिल रहा हूं मैं।
डाकू तो रह रहे सब संसद की शरण में,
बस नाका ही अब चंबल रहा हूं मैं।
आग आरियां,तूफान, बारिश, साजिशें सब बौनी हुई,
ReplyDeleteलहलहाता हुआ मगर जंगल रहा हूं मैं।
bahut khoobsurat
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ReplyDeletebahut badhiya gajal. badhai.
ReplyDeleteमंविन्दर जी,
ReplyDeleteधन्यवाद प्रोत्साहन के लिये। आपकी टिप्पणी मेरे लेखन को एक बेशकीमती पुरस्कार है।
भाई मिश्रा जी,
ReplyDeleteप्रोत्साहन के लिये आपका आभार, आशा है स्नेह बना रहेगा।
डाकू तो रह रहे सब संसद की शरण में,
ReplyDeleteबस नाम का ही अब चंबल रहा हूं मैं।
bhai bahot khub likha hai aapne,aapki gahari thinking aapko mukkamal shayar bana degi ... bahot umda .... jari rahe .. dhero sadhuwad...
बढ़िया गजल
ReplyDeleteअर्ष भाई,
ReplyDeleteजिस स्नेहिल भाव से आपने मेरी ग़ज़ल को सराहा है, उससे मुझे कितनी खुशी महसूस हो रही है, उसका आप अनुमान नहीं लगा सकते, स्नेह के लिये शुक्रिया।
पुनीत भाई,
ReplyDeleteधन्यवाद आपकी शुभकामनाओं से और लिखने की प्रेरणा मिलती है।
डाकू तो रह रहे सब संसद की शरण में,
ReplyDeleteबस नाम का ही अब चंबल रहा हूं मैं।
acchha hai bhai.
बढ़िया !
ReplyDeleteघुघूती बासूती
मेरे बडे भाई मेरे मीत,
ReplyDeleteआपकी प्रशंसा से मुझे बेहद खुशी हुई है। आपका स्नेह बना रहे तो लिखने में और धार आएगी।
डाकू तो रह रहे सब संसद की शरण में,
ReplyDeleteबस नाम का ही अब चंबल रहा हूं मैं।
एकदम सही कहा.
बहुत ही सुंदर रचना है.ऐसे ही लिखते रहें.शुभकामनाएं.
बर्फ हूं मेरे नाम से ठिठुरते हैं सभी,
ReplyDeleteपहाडों पर लेकिन बिछा कंबल रहा हूं मैं।
यह शेर गजब की सुन्दरता लिए हुए है.
रंजना जी,
ReplyDeleteधन्यवाद जिस गहराई से आप ने मेरी गज़ल पर टिप्पणी की है उससे आपकी साहित्य के प्रति रुचि स्पषट झलकती है, आशा है कि भविष्य में भी आपका स्नेह बना रहेगा।
very good
ReplyDeleteajay
Thanks Ajai Ji, I am very happy for your interest in my writing.THanks a lot.
ReplyDeleteबहुत उम्दा, प्रकाश जी. आनन्द आया पढ़कर.
ReplyDeleteशुक्रिया भाई समीर जी स्नेह और मार्गदर्शन बना रहे।
ReplyDeleteprakashbadal.blogspot.com
आग आरियां,तूफान, बारिश, साजिशें सब बौनी हुई,
ReplyDeleteलहलहाता हुआ मगर जंगल रहा हूं मैं।
डाकू तो रह रहे सब संसद की शरण में,
बस नाम का ही अब चंबल रहा हूं मैं।
वाह प्रकाश जी आपने जंगल में प्रकाश फैला दिया
क्या झकझोरता हुआ व्यंग्य है
शुक्रिया अग्रवाल जी,
ReplyDeleteमेरी लेखनी को और ताकत मिली।
जबसे तेरे प्यार में पागल रहा हूं मैं।
ReplyDeleteशह्र-भर की तबसे ही हलचल रहा हूं मैं।
संभवतया पागलपन ही प्यार की पहली निशानी है। प्यार करो अपने समय से, अपने चारों ओर के वातावरण से, जीव-जंतुओं से और फिर अपने आप से। डा गिरिराजशरण अग्रवाल
शुक्रिया डॉ0 साहब,
ReplyDeleteटिप्पणी के लिये।
वाह प्रकाश जी क्या लिखा है।
ReplyDeleteमनीष कुमार,ठियोग्
Gareebon ka hi ab chambal raha hun men.
ReplyDeleteAll the best.